बच्चों को सिखाएँ या उनसे सीखें
बचपन एक ऐसा दौर है जिसको हम बड़े प्यार से पीछे मुड़ कर देखा करते हैं। वो ऐसा वक्त होता है जब जिंदगी छोटी-छोटी खुशियों से भरी और जिम्मेदारियों से खाली होती है। मगर जरा गहराई से सोच कर देखिए कि क्या बच्चे सचमुच आजाद हैं?
बचपन एक ऐसा दौर है जिसको हम बड़े प्यार से पीछे मुड़ कर देखा करते हैं। वो ऐसा वक्त होता है जब जिंदगी छोटी-छोटी खुशियों से भरी और जिम्मेदारियों से खाली होती है। मगर जरा गहराई से सोच कर देखिए कि क्या बच्चे सचमुच आजाद हैं? या वो अपने परिवार के बड़े-बूढ़ों की थोपी हुई आशाओं और उम्मीदों के बोझ से लदे हुए हैं? क्या हमारे पास बच्चों को सिखाने के लिए वाकई में कुछ है या हमें ही उनसे बहुत-कुछ सीखना है? आइए देखते हैं मां-बाप और बच्चों के रिश्तों पर सद्गुरु का क्या कहना है।
अगर मां-बाप को सचमुच अपने बच्चों की चिंता है तो उन्हें बच्चों को इस तरह पालना-पोसना चाहिए कि उनको कभी मां-बाप की जरूरत ना पड़े। प्रेम की प्रक्रिया हमेशा आजाद करने वाली होनी चाहिए, बंधनो मे उलझाने वाली नहीं। इसलिए जब आपको बच्चे हों तो उनको आसपास की चीजों पर गौर करने दीजिए, प्रकृति और अपने-आप के साथ वक्त बिताने दीजिए। प्यार और प्रोत्साहन का माहौल बनाइए। उनके शरीर और बुद्धि का विकास होने दीजिए। उनको एक मनुष्य के तौर पर जिंदगी को अपने ढंग से देखने दीजिए। परिवार, धन-दौलत या किसी और चीज के साथ अपनी पहचान बनाए बिना वे सिर्फ एक इंसान के तौर पर चीजों को देखें। उनकी अपनी खुशहाली और दुनिया की भलाई के लिए जरूरी है कि जिंदगी को एक मनुष्य के रूप में देखने-समझने में आप उनकी मदद करें।