कविता
"ना समझ"
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थोड़ी अबुध थी,थोड़ी नासमज़ थी;
मेरी कथा थोड़ी हटके, सबसे अलग थी।
कुछ लिखा था मेंने सोच समज़कर;
कागज़ के टूकडों पर,थोड़ी बहस थी।
अकसर देखा हैं मैंनें, प्यार करनेवालो को;
आँखोकी शरारत उसकी,अकसर पहल थी।
कब जाना ? कब माना? पता ही नहीं;
जब दिलने की बहस, तब थोड़ी सहज़ थी।
आँखों के अंतर पटने, कुछ दीलसे लिखा;
कुछ नासमझ में भी, थोड़ी समझ थी ।
~Harshbindu....✍️
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