चाँदनी छत पे चल रही होगी,
अब अकेली टहल रही होगी।
फिर मेरा जिक्र आ गया होगा,
वो बरफ़-सी पिघल रही होगी।
कल का सपना बहुत सुहाना था,
ये उदासी न कल रही होगी।
सोचता हूँ कि बंद कमरे में,
एक शमआ-सी जल रही होगी।
शहर की भीड़-भाड़ से बचकर,
तू गली से निकल रही होगी।
आज बुनियाद थरथराती है,
वो दुआ फूल-फल रही होगी।
तेरे गहनों-सी खनखनाती थी,
बाज़रे की फ़सल रही होगी।
जिन हवाओं ने तुझको दुलराया,
उनमें मेरी ग़ज़ल रही होगी।
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©Arpit Mishra
दुष्यंत कुमार