"लिखने को बहुत कुछ है मगर....
ज़ेहन में आते ख़्यालातों के लिए
आज मेरे पास मुनासिब लफ़्ज़ नही।"
"चलो किसी तरह लफ़्ज़ भी ढूंढ लूं...
मगर कोई मेरे लिखे अलफ़ाज़ को पढ़ लें,
इतना भी तो अब किसी के पास वक्त नही।"
"वो ज़माना बीत गया....
जब काग़ज़ पर लिखी इबारत को
पढ़ने के कई शौकीन हुआ करते थे।"
"अब तो कोई नज़दीक बैठकर....
तुमसे घड़ी-दो-घड़ी चंद बातें बतियाले,
उसके लिए भी तो कोई पल नही।"
"लिखने को बहुत कुछ है मगर......"
©शिखा शर्मा
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