उलझा है मन खुद में
उलझा है मन खुद में मेरा,
कैसे अपनी मैं बात कहूँ।
हे शिव जी अब तो कृपा करो,
तुमसे ही अब मैं आस करूँ।
दुनिया में है ये विष कितना,
बिन पिये मुरझा हम तो रहे।
बाजू में छूरी हैं रखते,
मुख से श्री राम पुकार रहे।
अपराधों की है भीड़ लगी,
ले खंजर अब वे भोंक रहे।
चैनो अमन है कैसे कहें,
वे तो विपदा में झोंक रहे।
अब कैसे हो विश्वास यहांँ,
संशय में जीवन डोल रहा।
जो टूट गये विश्वास यहाँ,
रिश्तों में है जंग बोल रहा।
मानवता को है चोट लगी,
शैतानी जज़्बे जाग उठे।
संस्कारों की भी बली चढ़ी,
अब देख तमाशा भाग उठे।
उलझा है मन खुद में मेरा,
कैसे अपनी मैं बात कहूँ।
हे शिव जी अब तो कृपा करो,
तुमसे ही अब मैं आस करूँ।
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देवेश दीक्षित
©Devesh Dixit
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उलझा है मन खुद में
उलझा है मन खुद में मेरा,
कैसे अपनी मैं बात कहूँ।
हे शिव जी अब तो कृपा करो,
तुमसे ही अब मैं आस करूँ।