पर्वत पर शायद वृक्ष न कोई शेष बचा,
धरती पर शायद शेष बची है नहीं घास;
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास।
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का और कहो,
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाक़ी है?
बोलो-बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो।
©रामलखन मीणा
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