चाहत-ए-दीदार में हम रोज उनकी गलियों से गुजरते थे उ | हिंदी कविता

"चाहत-ए-दीदार में हम रोज उनकी गलियों से गुजरते थे उनकी एक झलक पाने की खातिर घंटो उनका इंतजार किया करते थे शायद उन्हें भी मालूम था की हम उन पर मरते थे या यूं कहूं वो भी मन ही मन हमसे प्यार करते थे शायद यही वजह थी वो भी हर रोज सज संवर कर घर से निकलते थे पर सच कहें जनाब उनसे अपने इश्क का इजहार हम कर नही पाए क्योंकि इजहार के बाद शायद उनकी एक झलक को भी तरस जाए इस बात से डरते थे ©Sajan"

 चाहत-ए-दीदार में हम रोज उनकी गलियों से गुजरते थे
उनकी एक झलक पाने की खातिर 
घंटो उनका इंतजार किया करते थे

शायद उन्हें भी मालूम था की हम उन पर मरते थे
या यूं कहूं वो भी मन ही मन हमसे प्यार करते थे

शायद यही वजह थी वो भी हर रोज सज संवर कर
घर से निकलते थे

पर सच कहें जनाब 
उनसे अपने इश्क का इजहार हम कर नही पाए
क्योंकि इजहार के बाद शायद 
उनकी एक झलक को भी तरस जाए 
इस बात से डरते थे

©Sajan

चाहत-ए-दीदार में हम रोज उनकी गलियों से गुजरते थे उनकी एक झलक पाने की खातिर घंटो उनका इंतजार किया करते थे शायद उन्हें भी मालूम था की हम उन पर मरते थे या यूं कहूं वो भी मन ही मन हमसे प्यार करते थे शायद यही वजह थी वो भी हर रोज सज संवर कर घर से निकलते थे पर सच कहें जनाब उनसे अपने इश्क का इजहार हम कर नही पाए क्योंकि इजहार के बाद शायद उनकी एक झलक को भी तरस जाए इस बात से डरते थे ©Sajan

#चाहत-ए-दीदार

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