न जाने कब हम जीना भूल गए। मंज़िल की तलाश मैं खुदका

"न जाने कब हम जीना भूल गए। मंज़िल की तलाश मैं खुदका पता ही भूल गए। हर दिन खुल के जीने के मौके मिलते हैं। पर हम तो मौके को भूल कर दर्द के गले मिलते हैं। अजीब हैं हम लोग भी कभी डरते हैं आंसुओं से ओर कभी आंसुओं की वजह भी हम बनते हैं। न जाने कब हम जीना भूल गए। मंज़िल की तलाश मैं खुदका पता ही भूल गए। -Naman Awasthi"

 न जाने कब हम जीना भूल गए।
मंज़िल की तलाश मैं खुदका पता ही भूल गए।
हर दिन खुल के जीने के मौके मिलते हैं।
पर हम तो मौके को भूल कर दर्द के गले मिलते हैं।
अजीब हैं हम लोग भी कभी डरते हैं आंसुओं से ओर 
कभी आंसुओं की वजह भी हम बनते हैं।
न जाने कब हम जीना भूल गए।
मंज़िल की तलाश मैं खुदका पता ही भूल गए।

-Naman Awasthi

न जाने कब हम जीना भूल गए। मंज़िल की तलाश मैं खुदका पता ही भूल गए। हर दिन खुल के जीने के मौके मिलते हैं। पर हम तो मौके को भूल कर दर्द के गले मिलते हैं। अजीब हैं हम लोग भी कभी डरते हैं आंसुओं से ओर कभी आंसुओं की वजह भी हम बनते हैं। न जाने कब हम जीना भूल गए। मंज़िल की तलाश मैं खुदका पता ही भूल गए। -Naman Awasthi

#Zindagi @Ashish thakur

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