#रत्नाकर कालोनी
पेज -97
कन्या... कन्या जो अपने पिता को दोनों लोकों में यश देने को अपने पिता के तरण तारण को स्वयं का दान,
पिता के हस्तकमल से बिना कुछ कहे करने को सहर्ष तैयार है..ये हैं भारत की बेटियाँ...! ये है त्याग.. ये है पिता के प्यार दुलार के प्रति एक बेटी का सच्चा समर्पण.. तभी तो बेटी अपने पिता की नाक होती हैं.. पिता का स्वाभिमान आत्मसम्मान होती हैं.. आज वही बेटी एक पिता कैसे वर को दान दे रहा है.. कोई सोचे उस पिता की उस वेदना को जिसे वह कह भी नहीं पा रहा है.. उस बेटी की अंतर चीत्कार जो अपने "पापा" के बिन एक पल ना रह सकी, उसे अब अंजान घर में उम्र भर रहना पड़ेगा... कथाकार स्वयं इस दृश्य से वेदना समुद्र में डूबा जा रहा है... तब तक पुरोहित जी ने कन्यादान का संकल्प पढ़कर विधि पूरण कर दी ..
अब वर वधु का पाणिग्रहण संस्कार की रीति निभाई जा रही है... "पाणिग्रहण," एक दूसरे के हाथों में हाथ देने की रस्म या अटूट विश्वास की रस्म... पुरोहित जी मंत्रोच्चार करते जा रहे हैं. वर वधु और माता पिता को सारे दस्तूरों के बारे बताते जा रहे हैं ... फिर मर्यादाकरण विधि के बारे में वर वधु को बताते हैं...सात वचन और प्रतिज्ञाओं के बारे में समझाते हुये पुरोहित जी ने सप्तपदी विधि अर्थात भाँवरों की ओर संकेत किया.. अग्नि प्रज्ज्वलित हुई और शुरु हुये सात जन्मों के सात फेरे....
भाँवरे पड़ते जा रही थीं सब इस रस्म को बड़े गौर से देख रहे हैं.. किसी ने कह दिया अब जाकर विवाह सम्पन्न हुआ.. उसी क्षण हमारी रुचिका बहन ने कहा अभी कहां-?
तो पुष्पा जी कह उठे-तो कब..,?
रुचिका जी ने तब सुनाया एक गीत जो स्वयं कहता है कि...