जेब की खनक सुनके ख्वाईशो को मरते देखा है,
मैंने सपनो को ऊंचाइयों से कही बार डरते देखा है,
जख्मो को मरहम से सिहरते देखा है ,
पैरो को रिक्षे का किराया भरते देखा है,
रात में आँशु ओ को बिखरते देखा है,
सुबह मेने खुद को फिर से निखरते देखा है,
अस्वीकृति देखि है त्याग देखा है,
खुद को बागी सा बाग़ देखा है ,
नींद को रातो से डरते देखा है,
मैंने कूद को सपनो का क़त्ल करते देखा है,
समय को शुन्य से निचे उतरते देखा है,
मैंने कूद को ऐसे भी गुजरते देखा है....!
©Darshan Belani
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