कितने दिन और जीना होगा उम्मीदों के सिरहाने सर छुप | हिंदी कविता

"कितने दिन और जीना होगा उम्मीदों के सिरहाने सर छुपाए बेचैनियों की शानो में गुस्ताखीयों के सर टिकाए दूर दूर तक नजर नहीं आते आने वाले डर था कि कहीं आ ना जाए चाहतों ने डर के विकल्प को थामे रखा या यूं कहूं की स्थिरता को जाने दिया ठीक उसी तरह जिस तरह मुसाफिर जाते हैं अनजान राहों को अजनबीयों की राह ताके बेनाम खोजों पर ©Yãsh BøRâ"

 कितने दिन और जीना होगा 
उम्मीदों के सिरहाने सर छुपाए
बेचैनियों की शानो में गुस्ताखीयों के सर टिकाए
दूर दूर तक नजर नहीं आते आने वाले 
डर था कि कहीं आ ना जाए 
चाहतों ने डर के विकल्प को थामे रखा 
या यूं कहूं की स्थिरता को जाने दिया
ठीक उसी तरह जिस तरह मुसाफिर जाते हैं 
अनजान राहों को अजनबीयों की राह ताके
बेनाम खोजों पर

©Yãsh BøRâ

कितने दिन और जीना होगा उम्मीदों के सिरहाने सर छुपाए बेचैनियों की शानो में गुस्ताखीयों के सर टिकाए दूर दूर तक नजर नहीं आते आने वाले डर था कि कहीं आ ना जाए चाहतों ने डर के विकल्प को थामे रखा या यूं कहूं की स्थिरता को जाने दिया ठीक उसी तरह जिस तरह मुसाफिर जाते हैं अनजान राहों को अजनबीयों की राह ताके बेनाम खोजों पर ©Yãsh BøRâ

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