ये आधे खुले दरीचे
ये लहराते हुए पर्दे
दीवारों पर उभरी हुई परछाइयां!
जैसे इस झरोखे से कमरे में कोई दाख़िल हुआ हो
उफ़्फ़ ये यादेँ!
इनका यूँ वक़्त का पाबंद होना मुझे कभी पसँद नहीं रहा
इंतज़ार का अपना ही मज़ा है
जब सूरज पूरब से चढ़ते हुए पश्चिम में गहरे समँदर में डूब जाता है
और चाँद आवारागर्दी करने
सितारों से भरे आसमाँ की सैर पर निकल पड़ता है।
बार बार घड़ी की सुइयाँ निहारना और ख्याल बुनना!
वैसे तुम्हारा ख़्याल बुनते हुए कभी मुझे यह ख्याल नहीं आया
की ये इंतज़ार कभी समय के पार भी जाएगा।
जहाँ घूमती हुई घड़ी की सुइयों का
वापस उसी मुकाम पर लौट आना भी
शुरुआत होगी
एक नए इंतज़ार की!
ख़ैर अब तुम्हारा होना ना होना इस मुकाम पर बेमायने हैं
ये मामला इश्क़ से कहीँ ज्यादा एहसासों की परवरिश का है।
©Kranti Thakur
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