शाम- ए -अवध में दिल इज़्तिराब से बहकता है
जैसे तू इर्द - गिर्द मेरी साँसों में महकता है
तू समाया है मुझमें जैसे रग-रग में बहता ख़ून है
मेरी उलझी सी ज़िन्दग़ी का तू इकलौता सतून है
सुबह-ए-बनारस के जैसी तेरी बाहों में सुकून है
कि परवाने के जैसे लगता तेरे इश्क़ में जुनून है
भीग जाती हूँ मैं अक़्सर तेरी आग़ोश में आकर
शोख़ बादल की तरह मुझपे तू ऐसे बरसता है
जैसे तू इर्द - गिर्द मेरी साँसों में महकता है
तेरी क़ुर्बत में जो आऊँ तो जज़्बात उलझ जाते हैं
जब तू मुझे छूता है तो मेरे होंठ लरज़ जाते हैं
कई अरसे तक हम तेरे दीदार को तरस जाते हैं
तेरी जुदाई का जो सोचूँ तो मेरे नैन बरस जाते हैं
मैं अगर देख लूँ तुझको किसी ग़ैर की निस्बत में
"फ़रहत' सा मेरा दिल ये हर वक़्त सुलगता है
जैसे तू इर्द - गिर्द मेरी साँसों में महकता है
शाम- ए -अवध में दिल इज़्तिराब से बहकता है
जैसे तू इर्द - गिर्द मेरी साँसों में महकता है
- फ़रहत ख़ान