***आजकल कुछ कुछ अपने मन का करने लगी हूँ मैं***
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आजकल कुछ कुछ अपने मन का करने लगी हूँ मैं!
सुबह की चाय के साथ चंद पलों के लिए हर रोज अखबार को पलटने लगी हूँ मैं!
रखती हूँ अपनी हर जिम्मेदारी का ख्याल पर अब इसके
साथ ही खुद के लिए भी थोड़ा थोड़ा जिने लगी हूँ मैं!
खोल अपनी पुरानी डायरी के पन्नों को कभी कभी !
सुनहरी यादों के खाबों में भिर से
खोने लगी हूँ मैं!
बिस्तार से फैले इस आकाश के एक टूकड़े पे मेरे हिस्से के सितारे जगमगाते हैं!
उन सितारों को अब अकसर निहारने लगी हूँ मैं!
जीवन सरिता में हर ख्वाहिश पूरी हो ये जरूरी तो नहीं!
भिर भी अब खुश रहने का कोई न कोई बहाना ठूंड लेती हूँ मैं!
हर हाल में अपने वजूद के साथ जिना चाहती हूँ!
शायद अब अपनी अहमियत को बखूबी समझने लगीं हूँ मैं!!
......रूपम.....
©Rupam Mahto
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