ये जो सांझ सवेरे तुम घाटो को चली आती हो
बताओ जरा तुम किस प्रकार सुकून पाती हो?
बाहरी शोर से तंग मैं अंतर्मन में मौन चाहती हूँ,
खुद के विचार युद्ध में मैं खुद को ही जीताती हूँ,
खुद को देखती खुद की नजर से मैं उस पार नजर आती हूँ,
खुद को सुकून नहीं तो मैं ठहराव को मिटाती हूँ,
बिन संयम की बैठी मैं ठहरे नद में कंपन लाती हूँ,
टूटते मौन के साथ मैं फिर शोर में लौट जाती हूँ,
हो जाती हूँ खुश मैं जब कुछ वक्त खुद के साथ बिताती हूँ,
इसलिए सांझ सवेरे मैं घाटो को चली आती हूँ।।
©sakshi jaiswal
sukoon