लाल क्षितिज पर कुदरत ने एक प्रतिबिंब उकेरा है
नादान है तू जो लेकर बैठा क्या तेरा क्या मेरा है
बेकल मन है,कोई राह नहीं है,चारों ओर अंधेरा है
खुद को खुद का भास नहीं है कोहरा बड़ा घनेरा है
मैं को "मय"से जोड़कर देखो सबका एक बसेरा है
पिंजरे से बाहर तो आजा पूरा आकाश बिखेरा है
देर न कर अब चुन-चुनकर ढूंढ ले मोती जीवन के
दूर क्षितिज पर उगता है फिर देखो नया सवेरा है।
©Amar Deep Singh
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