White सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी | हिंदी कविता Video

"White सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है। दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे, तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली। जनता? हाँ, वही कृषि-प्रधान गँवार देहात, जहाँ जाति-जाति के नाम पर होते हैं घात, जनता? हाँ, वही, अनपढ़, गुणहीन, गरिब गाँव, जिसके पास पशु के सिवा नहीं कोई ठाँव। सदियों से सहमी हुई बुतों की उस भीड़ पर तरस आज आता मुझे, भरी दोपहरी में जो नंगे पाँव चल रही है, तप्त सड़क पर, अब भी जब कि उसकी लाश ठंडी हो चली, ठहरी नहीं तो उसी निर्दय अंगारों पर, जिसकी छाती में धधक रही है, आग सुलगती है, जो अम्बारों से गुज़र रही है, विषधर साँप-सी। सिंहासन खाली करो कि जनता आती ©आगाज़ "

White सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है। दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे, तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली। जनता? हाँ, वही कृषि-प्रधान गँवार देहात, जहाँ जाति-जाति के नाम पर होते हैं घात, जनता? हाँ, वही, अनपढ़, गुणहीन, गरिब गाँव, जिसके पास पशु के सिवा नहीं कोई ठाँव। सदियों से सहमी हुई बुतों की उस भीड़ पर तरस आज आता मुझे, भरी दोपहरी में जो नंगे पाँव चल रही है, तप्त सड़क पर, अब भी जब कि उसकी लाश ठंडी हो चली, ठहरी नहीं तो उसी निर्दय अंगारों पर, जिसकी छाती में धधक रही है, आग सुलगती है, जो अम्बारों से गुज़र रही है, विषधर साँप-सी। सिंहासन खाली करो कि जनता आती ©आगाज़

#Joshi @aditi the writer @Niaz (Harf)

People who shared love close

More like this

Trending Topic