गांव छूटा, घर छूटा।
मानो छूट गया संसार।।
अपने छूटे, जाने कितने रूठे।
बस रह गया सपनों का व्यापार।।
होली के रंगों में महक वो अब नहीं आती है।
दीवाली की शाम भी कहाँ जगमगाती है।।
बहन का प्यार भी अब लिफाफे में लिपटा आता है।
कलाई तक आते - आते फीका से पड़ जाता है।।
पतंगों की डोर अब कहाँ उलझती है।
कागज़ों की कश्ती डूबे कहाँ अब वो बस्ती है।।
पिताजी की फटकार को ये कान तरसते हैं।
जो मां खिलाये हाथों से वो दिन कहाँ अब इतने सस्ते हैं।।
आगे बढ़ने की होड़ में जाने कहाँ निकल आये हैं।
हम बड़े तो हो गए मगर वो *बचपन* साथ नहीं ला पाए हैं।।
©yamini gaur
#stairs