जैसे सरिता आके सिंधु के ह्रदय में डूब जाती
जैसे यह सृष्टि भी दिनकर के उदय में डूब जाती
जैसे खलिहानों में फसलें वायु संग आलाप करतीं
जैसे झीलों में समाहित मीन जल का जाप करतीं
ठीक ऐसे ही विचारों का उदय है मेरे मन में
सिर्फ तेरी आकृति का ही विलय है मेरे मन में
मेरे मानस में उठी है आज यह आशा जरा सी
तुम हमारे नाम कर दो अपनी सारी प्रेम राशी
तेरे नेह जड़ित नयनों से चलती गोली झेलेंगे
अपने प्राण बचा पाए तो हम भी होली खेलेंगे
©पीयूष "पैहम"
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