सोचा था बताऊंगा मिल कर तुझसे हाल खुद के
कैसे गुजरी यह ज़िन्दगी तेरे बिना सुनाऊंगा तुझे
पर तुम सामने आए और में बेहाल हो गया
ऐसा लगा जैसे में खुले आसमान के नीचे आ गया
मानो समंदुर में नदी मिलना चाहती थी
कुछ पल ही सही तेरे साथ जीना चाहती थी
खुद का वजूद फिर मैं भूल बैठा था
तेरे कांधे पे सिर रखकर रोना चाहता था
पर एहसास ऐसा क्यों हुआ कि तुम अब बदल गए हो
शायद तुम्हारे पैरों को जिम्मदारी की जंजीरों ने जकड़ा था
मालूम है मुझे आज भी तड़पती हो सिर्फ मेरे लिए
पर फिर भी ऐसा क्यों लगा कि सब कुछ बदल गया हो
इक मन हुआ कि सब छोड़ आगे बढ़ जाऊं
पर जो देखा तेरी निगाहों में लगा कि डूब ही जाऊ
ऐसे ही ना तू मेरी निशा थी
शायद हम दोनों के प्यार की ना कभी सुबह थी