रिश्तों का चक्रव्यूह " दुनिया के इस मोह भँवर में | हिंदी Poetry

""रिश्तों का चक्रव्यूह " दुनिया के इस मोह भँवर में.... दुनिया के इस मोह भँवर में सुखी वही कहलाता है रिश्तों के इस मायाजाल से खुद को दूर जो पाता है इस चक्रव्यूह की रचना में.... इस चक्रव्यूह की रचना में उलझ कर ही रह जाता है जीवन के हर मोड़ पे खुद को तनहा अकेला पाता है भावुक्ता की आँधी में.... भावुक्ता की आँधी में कुछ झिंझोड़ सा जाता है लालसा के दलदल में रिश्तों का दामन छुट जाता है बाहर के इस शोर से,अन्दर कुछ टूट सा जाता है इस चक्रव्यूह में फँसकर मन कुछ व्याकुल सा हो जाता है अपने और पराये में फर्क समझ नहीं आता है रिश्तों के पैरामीटर पर दौलत बाजी़ मार जाता है अपना ही अपना आखिर क्यूँ कहलाता है जब इस मोह भँवर में रिश्ता धुधँला सा पड़ जाता है बाहर की इस भीड़ में कोई अपना नजर नहीं आता है फिर भी इस चक्रव्यूह में फँसकर ही रह जाता है अभिमन्यु की भाँति.... अभिमन्यु की भाँति जोड़ बडा़ लगाता है पर इस चक्रव्यूह में खुद को अकेला ही पाता है शब्दो का समंदर,जब तूफान बन आता है अंतर्मन में भारी सन्नाटा छा जाता है रिश्तों की मर्यादा में .... रिश्तों की मर्यादा में खुद को बंधा ही पाता है फिर भी इन रिश्तों का दामन छुट सा जाता है... फिर भी इन रिश्तों का दामन छुट सा जाता है... - सृष्टि सिंह राजपूत"

 "रिश्तों का चक्रव्यूह "

दुनिया के इस मोह भँवर में....
दुनिया के इस मोह भँवर में सुखी वही कहलाता है
रिश्तों के इस मायाजाल से खुद को दूर जो पाता है

इस चक्रव्यूह की रचना में....
इस चक्रव्यूह की रचना में उलझ कर ही रह जाता है
जीवन के हर मोड़ पे खुद को तनहा अकेला पाता है

भावुक्ता की आँधी में....
भावुक्ता की आँधी में कुछ झिंझोड़ सा जाता है
लालसा के दलदल में रिश्तों का दामन छुट जाता है
बाहर के इस शोर से,अन्दर कुछ टूट सा जाता है
इस चक्रव्यूह में फँसकर मन कुछ व्याकुल सा हो जाता है

अपने और पराये में फर्क समझ नहीं आता है
रिश्तों के पैरामीटर पर दौलत बाजी़ मार जाता है
अपना ही अपना आखिर क्यूँ कहलाता है
जब इस मोह भँवर में रिश्ता धुधँला सा पड़ जाता है

बाहर की इस भीड़ में कोई अपना नजर नहीं आता है
फिर भी इस चक्रव्यूह में फँसकर ही रह जाता है
अभिमन्यु की भाँति....
अभिमन्यु की भाँति जोड़ बडा़ लगाता है
पर इस चक्रव्यूह में खुद को अकेला ही पाता है

शब्दो का समंदर,जब तूफान बन आता है
अंतर्मन में भारी सन्नाटा छा जाता है
रिश्तों की मर्यादा में ....
रिश्तों की मर्यादा में खुद को बंधा ही पाता है
फिर भी इन रिश्तों का दामन छुट सा जाता है...
फिर भी इन रिश्तों का दामन छुट सा जाता है...
                    
 - सृष्टि सिंह राजपूत

"रिश्तों का चक्रव्यूह " दुनिया के इस मोह भँवर में.... दुनिया के इस मोह भँवर में सुखी वही कहलाता है रिश्तों के इस मायाजाल से खुद को दूर जो पाता है इस चक्रव्यूह की रचना में.... इस चक्रव्यूह की रचना में उलझ कर ही रह जाता है जीवन के हर मोड़ पे खुद को तनहा अकेला पाता है भावुक्ता की आँधी में.... भावुक्ता की आँधी में कुछ झिंझोड़ सा जाता है लालसा के दलदल में रिश्तों का दामन छुट जाता है बाहर के इस शोर से,अन्दर कुछ टूट सा जाता है इस चक्रव्यूह में फँसकर मन कुछ व्याकुल सा हो जाता है अपने और पराये में फर्क समझ नहीं आता है रिश्तों के पैरामीटर पर दौलत बाजी़ मार जाता है अपना ही अपना आखिर क्यूँ कहलाता है जब इस मोह भँवर में रिश्ता धुधँला सा पड़ जाता है बाहर की इस भीड़ में कोई अपना नजर नहीं आता है फिर भी इस चक्रव्यूह में फँसकर ही रह जाता है अभिमन्यु की भाँति.... अभिमन्यु की भाँति जोड़ बडा़ लगाता है पर इस चक्रव्यूह में खुद को अकेला ही पाता है शब्दो का समंदर,जब तूफान बन आता है अंतर्मन में भारी सन्नाटा छा जाता है रिश्तों की मर्यादा में .... रिश्तों की मर्यादा में खुद को बंधा ही पाता है फिर भी इन रिश्तों का दामन छुट सा जाता है... फिर भी इन रिश्तों का दामन छुट सा जाता है... - सृष्टि सिंह राजपूत

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