यहां के नहीं हो" कभी बोलना बहरे पत्थरों से जिन्ह | हिंदी कविता Vi

""यहां के नहीं हो" कभी बोलना बहरे पत्थरों से जिन्हे अपने जिन्दा होने का वहम है कभी सुनाई देंगी गूंगी जुबानें जिन्हें न दीन है न रहम है महसूस कर सकते हो तो यहां के नहीं हो न कोई तुम्हारा न तुम किसी के हो भीड़ में दिखाई देंगे जिनका न धड़ है न सिर है बस दीमाग है एक बिमार दीमाग उनसे बचकर निकलो तो महसूस करते हो तो यहां के नहीं हो लाशों के शहर में तन्हा हो... - प्रेरित कौशिक ©Nihshabdh "

"यहां के नहीं हो" कभी बोलना बहरे पत्थरों से जिन्हे अपने जिन्दा होने का वहम है कभी सुनाई देंगी गूंगी जुबानें जिन्हें न दीन है न रहम है महसूस कर सकते हो तो यहां के नहीं हो न कोई तुम्हारा न तुम किसी के हो भीड़ में दिखाई देंगे जिनका न धड़ है न सिर है बस दीमाग है एक बिमार दीमाग उनसे बचकर निकलो तो महसूस करते हो तो यहां के नहीं हो लाशों के शहर में तन्हा हो... - प्रेरित कौशिक ©Nihshabdh

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