कोई कितना भी पढ़ता हो मुझे उनसे अधिक पढ़ना, परिस् | हिंदी कविता

"कोई कितना भी पढ़ता हो मुझे उनसे अधिक पढ़ना, परिस्थिति चाहे जैसी हो उनसे हर हाल में लड़ना। नहीं होगा कभी भी मेरे ऊपर हावी आलस्य, मुझे अपने आप सेे ही एक यह दृढ़ प्रण करना ॥ लोग कई मुझसे कहतेे हैं कि मैं कुछ कर नहींं सकता, उन्हें कुछ कर दिखाने को मन बेचैन हो उठता। वह नहीं देख सकते मेरे अंदर की ज्वाला को , समझाए कौन उन्हें यह बात समय पूर्व आम नहीं पकता॥ असंभव को संभव करने की मन में जो ठानी है , हो जाए नाम अपना भी नहीं बेकार जवानी है चलूंगा कच्छप चाल से पर चलता रहूंगा, जैसे बहता है नदियों मेंं निरंतरता से पानी"

 कोई कितना भी पढ़ता हो मुझे उनसे अधिक पढ़ना, 
परिस्थिति चाहे जैसी हो उनसे हर हाल में   लड़ना। 
नहीं   होगा    कभी भी   मेरे ऊपर  हावी आलस्य, 
मुझे अपने आप सेे ही एक यह दृढ़ प्रण करना   ॥ 

लोग कई मुझसे कहतेे हैं कि मैं कुछ कर नहींं सकता, 
 उन्हें   कुछ कर  दिखाने   को मन   बेचैन हो उठता। 
वह  नहीं  देख  सकते   मेरे अंदर की  ज्वाला को ,
समझाए कौन उन्हें यह बात समय पूर्व आम नहीं पकता॥ 

असंभव को संभव करने की मन में जो ठानी है , 
हो जाए नाम अपना भी नहीं बेकार जवानी है
चलूंगा    कच्छप  चाल से पर    चलता रहूंगा, 
जैसे बहता है नदियों मेंं निरंतरता से पानी

कोई कितना भी पढ़ता हो मुझे उनसे अधिक पढ़ना, परिस्थिति चाहे जैसी हो उनसे हर हाल में लड़ना। नहीं होगा कभी भी मेरे ऊपर हावी आलस्य, मुझे अपने आप सेे ही एक यह दृढ़ प्रण करना ॥ लोग कई मुझसे कहतेे हैं कि मैं कुछ कर नहींं सकता, उन्हें कुछ कर दिखाने को मन बेचैन हो उठता। वह नहीं देख सकते मेरे अंदर की ज्वाला को , समझाए कौन उन्हें यह बात समय पूर्व आम नहीं पकता॥ असंभव को संभव करने की मन में जो ठानी है , हो जाए नाम अपना भी नहीं बेकार जवानी है चलूंगा कच्छप चाल से पर चलता रहूंगा, जैसे बहता है नदियों मेंं निरंतरता से पानी

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