लिपटी हुई रूहें जिस्मों से निचोड़े जा रहे हैं
मासूम कलियां बगीचों से तोड़े जा रहे हैं
रोकी जा रही कहीं कोई सांस अंधेर शहर के कोने में
फोड़ी जा रही कहीं कोई आंख बंद दीवार कमरों में
अब फिर से वो बूचड़खाने शहर बसाने आए हैं
स्वच्छ निर्मल ह्रदयों को काट बेचने आएं हैं
कहीं कोई आवाज उठ रही कैद जान के बेड़ों से
फिर से वो इक लाश की बाजार लगाने हैं
घूम रहे हैं दैत्य करूणा के इंसां को मिटाने आए हैं
भूखे हैं वो जिस्मों के हाड़ मांस खा जाएंगे
इंसानियत की चिता उठाए कंधों पर वो घूम रहे
फिर से गिद्धों और कौओं के शहर बसाने आएं हैं
अब कोई ह्रदय धड़कता नहीं कोमल सी मुस्कान से
कोई घर महकता नहीं फूलों की दुकान से
क्या अब ये संसार फिर रेत हो जाएगा ?
जमीं कहीं भी खाली न होगी सब पानी हो जाएगा ?
कैसे जीवन की रक्षा होगी जंगल के खूंखारों से
क्या फिर इंसानियत ख़ाक में मिल जाएगा ?
©Aman kumar
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