इस तरह दुनिया के सांचे में ढलते गए, उम्र बढ़ती गई | हिंदी शायरी

"इस तरह दुनिया के सांचे में ढलते गए, उम्र बढ़ती गई और हम लिबास बदलते गए। वहीं कागज, कलम और जज्बात रहे लोगों के साथ, लफ्ज़ों के कारोबार जहां में सदियों तक चलते गए। मां को फंसाती रही दूसरे घर जाने की रियायतें, रसोई में हाथ किसी मासूम बेटी के जलते गए। वो हर सुबह का जोश, वह हर शाम की मायूसी, हर रात बिस्तर पर कुछ ख्याल बेवजह मचलते गए। कच्ची उम्र में नहीं बनते यूं ही पके लफ्ज़ गम के, सुबह-शाम दिल को हम खौलते तेल में तलते गए। बचपन की आदत है मेरी बुराई के सांप पालने की, पर मुझ में यह अच्छाई की नेवले कैसे पलते गए।। ©OJASWI SHARMA"

 इस तरह दुनिया के सांचे में ढलते गए, 
उम्र बढ़ती गई और हम लिबास बदलते गए। 

वहीं कागज, कलम और जज्बात रहे लोगों के साथ, 
लफ्ज़ों के कारोबार जहां में सदियों तक चलते गए। 

 मां को फंसाती रही दूसरे घर जाने की रियायतें, 
 रसोई में हाथ किसी मासूम बेटी के जलते गए। 

वो हर सुबह का जोश, वह हर शाम की मायूसी, 
 हर रात बिस्तर पर कुछ ख्याल बेवजह मचलते गए। 

कच्ची उम्र में नहीं बनते यूं ही पके लफ्ज़ गम के, 
सुबह-शाम दिल को हम खौलते तेल में तलते गए। 

बचपन की आदत है मेरी बुराई के सांप पालने की, 
पर मुझ में यह अच्छाई की नेवले कैसे पलते गए।।

©OJASWI SHARMA

इस तरह दुनिया के सांचे में ढलते गए, उम्र बढ़ती गई और हम लिबास बदलते गए। वहीं कागज, कलम और जज्बात रहे लोगों के साथ, लफ्ज़ों के कारोबार जहां में सदियों तक चलते गए। मां को फंसाती रही दूसरे घर जाने की रियायतें, रसोई में हाथ किसी मासूम बेटी के जलते गए। वो हर सुबह का जोश, वह हर शाम की मायूसी, हर रात बिस्तर पर कुछ ख्याल बेवजह मचलते गए। कच्ची उम्र में नहीं बनते यूं ही पके लफ्ज़ गम के, सुबह-शाम दिल को हम खौलते तेल में तलते गए। बचपन की आदत है मेरी बुराई के सांप पालने की, पर मुझ में यह अच्छाई की नेवले कैसे पलते गए।। ©OJASWI SHARMA

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