ग़ज़ल
जानता हूँ मैं फैसला दिल का
इक हँसीं से है सामना दिल का
क्यों समझते अलग मुझे उससे
एक वो ही है रहनुमा दिल का
किसलिए अब बुरा कहें उसको
उसने जोड़ा है आइना दिल का
जब भी उस पर नज़र पड़ी मेरी
मुझको लगता वो देवता दिल का
मान लेता मैं बात भी दिल की
दिल ही करता जो फैसला दिल का
मान बैठा हूँ ज़िन्दगी उसको
उसने माना है हर कहा दिल का
दास्तां क्या सुनें प्रखर की हम
रात दिन बस है रूठना दिल का
महेन्द्र सिंह प्रखर
©MAHENDRA SINGH PRAKHAR
ग़ज़ल
जानता हूँ मैं फैसला दिल का
इक हँसीं से है सामना दिल का