आलोक श्रीवास्तव जी की एक सुंदर ग़ज़ल " बाबूजी " .
घर की बुनियादें, दीवारें, बाम और दर थे बाबूजी,
सबको बाँधे रखने वाला, ख़ास हुनर थे बाबूजी.
उनकी ही आवाज़ हमें हर सुब्ह जगाया करती थी, सारे घर का अनुशासन थे, सारा घर थे बाबूजी.
भीतर से ख़ालिस जज़्बाती और ऊपर से ठेठ पिता, अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी.
तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द काठी का कोई न था, अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबूजी.
अब तो उस सूने माथे पर, कोरेपन की चादर अम्माजी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी.
कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन, मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी.
©Laparwaah
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