दो नन्हे से कबूतर, मेरे घर में रहते हैं,
एक अज़नबी ज़ुबाँ में, मुझे कुछ तो कहते हैं..
दो नन्हे से कबूतर..
मुझे लगता हैं, वो हँसते हैँ मुझे रोता देखकर,
मुझे लगता हैं,मेरे ग़म से ख़ुशी मिलती हैं उनको,
कि जब में हारता हूँ, जश्न मनाते भी होंगे वो,
मेरी बदहाली से राहत ग़ज़ब की मिलती हैं उनको,
कि जब में लौट आता हूँ, थका बेहाल अपने घर,
मेरे स्वागत में अक्सर आसमाँ से हगते रहते हैं..
कि दो नन्हे से कबूतर, मेरे घर में रहते हैं,
एक अज़नबी ज़ुबाँ में, मुझे कुछ तो कहते हैं..(1)
मैं अक्सर सोचता हूँ, क्या में परेशान हूँ उनसे,
मैं ये भी सोचता हूँ, क्या वो परेशान नहीं हैं,
कि हमने भी उजाड़े थे कभी वो घोंसले उनके,
वो जिंदादिल हैं अबतक, इसलिए इंसान नहीं हैं,
कि दिल में द्वेष भावना उन्हें रखना नहीं आती,
मेरे हर ग़म में आंसू उनकी आँखों से भी बहते हैं,
कि दो नन्हे से कबूतर, मेरे घर में रहते हैं,
एक अज़नबी ज़ुबाँ में, मुझे कुछ तो कहते हैं..(2)
भगाया लाख उनको हर दफ़ा लौट कर आये,
हैं राब्ता क्या मुझसे,मुझको कोई समझाए..
ये मुझको कोई समझाए..
ये मुझको कोई समझाए..
_(कबूतरों का जवाब)_
तो बतलाते तुझे हम आज तुझसे राब्ता हैं क्या..
क्यों छत तेरे ही घर की हमको भूले ना भुलाती हैं,
सदाएँ उठती तेरे घर से जो हम तक पहुँचती हैं,
वो अपनेपन की खुशबू हैं जो हमको खिंच लाती हैं,
जिसे कहता हैं आज फ़ख्र से तू अपना आशियाँ,
पता हैं कल वहाँ पर आम का इक पेड़ खड़ा था,
जिसे काटा था बड़ी बेदिली से याद कर तूने,
उसी की एक डाली पर हमारा घोंसला भी था..
तबाह कर घर हमारा,तूने अपना घर बनाया हैं,
यहीं एक वेदना हैं जो तुझे हर रोज़ कहते हैं,
कि हम दो नन्हे से कबूतर,अपने ही घर में रहते हैं,
एक अज़नबी ज़ुबाँ में, अपना दर्द कहते हैं..(3)
वो अनगिनत कबूतर,जो इस दुनिया में रहते हैं,
एक अज़नबी ज़ुबाँ में, अपना दर्द कहते हैं..
अपना दर्द कहते हैं ।
- अंकित
©Qalamkar
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