White मेरी डायरी, अनसुलझी सी #2
......उलझे-उलझे.....
सबके साथ उलझे-उलझे रहने में पता ही नहीं चला, कब खुद में ही मैं उलझती चली गई। घर के सामानों के साथ खुद भी समान होती चली गई । घर को समेटते - समेटते, अपने अंदर खुद को इतना बिखेर दिया, कि अब उसे समेटने का कोई रास्ता समझ नहीं आता । अब खुद भी मुझे लगता है, कि मैंने खुद को कितना बिखेर दिया है। मुझे घर के बर्तन, कपड़े , यहां तक की जूते चप्पल सब कुछ समेटने का समय है, समय नहीं है तो, बस खुद को समेटने का । पर सोचती हूं, खुद में समेटू भी तो क्या ? एक ऐसी खामोशी, जो मुझे ही नहीं पता कि वो है क्यों? या, एक ऐसा अकेलापन, जिसे मैंने खुद ही बनाया है ,पता नहीं, क्या समेटना है मुझे.....
©Janshruti
#thought