खुली नज़र का मेरा ये सपना,
बना रही हूं मैं एक घरौंदा
जहाँ सुनाई दें रहे हों ताने
कोई भी अपना ना मुझको माने
ज़रा तो सोचो गुज़र हो कैसे
उन महलों में मेरे अह्न की
हैं तो बहुत घर मेरे जहाँ में
बड़े जतन से जिन्हें सजाया
पर!! किसी ने बोला तुम हो पराई
किसी ने पूछा कहाँ से आई
इन जिल्लतों का बोझ है मन पर
कुछ कर गुज़रना है अपने दम पर
कब तक रहूंगी मैं बोझ बनकर
मैं क्यों नहीं सोचती हुँ हटकर
पिता, पति, पुत्र और भाई
सभी के घर में रही पराई
कभी कहीं घर मेरा भी होगा
जहाँ सर उठा कर मैं रह सकूंगी
खुली नज़र का मेरा ये सपना,
बना रही हूं मैं एक घरौंदा ।।
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