"प्रिय संपादक जी , में बहुत अर्से से देख रहा हूँ की हालात बहुत चिंताजनक होते जा रहे हैं । में कभी ख़बरिया मशहूरियत का आइना हुआ करता था । उस समय आपका रौब रुबाब देखते ही बनता था । वो महफ़िलें चाहे राजनीती की हो,समाज की हों,किसी जागरूकता के लिये हों या फिर कहीं भी कोई भी किसी वजह से जब बुलाये तो सब आपकी आमदरफ्त और आपकी नजरें इनायत के लिये तरसा करते थे । आप मुझे बहुत एहतियातन अपने वजूद से ज़्यादा समझा करते थे । ख़ैर अब तो ऐसा लगता है कि आपके और मेरे मध्य एक खाई सी ख़ुद गयी है । अब में बहुत बार देखता हूँ कि आप मेरे सीने पर मेरे भीतर मेरे वेश में ना जाने क्या क्या छुपाकर बेच देते हैं । उन मासूम पाठकों को जिसमें उससे प्रभावित होने वाली युवा पीढ़ी,बुजुर्ग,महिलाएँ,बच्चे और तमाम लोग जो आपके लिखे हुऐ शब्दों पर ईश्वर जैसा भरोसा करते हैं । आप अपनी मिजाजपुर्सी और बेईमानी के लिये मुझे एक ज़रिया बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं । आप अब वो नही रहे जो कभी अपने उसूलों में मुझे सामाजिक बदलाव का हस्ताक्षर माना करते थे । आप बहुत बदल गये हैं संपादक जी सच कहूं तो अब मुझ पर छिड़की गयी स्याही मुझे वो गन्दा खून लगती है जिसे क्षुद्र और छदम रास्तों से लाकर महज़ इस माहौल को किसी खासोआम की तरफ मोड़ने के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है । आप बेहद बदल गये हैं उन कसमों से जो कभी मेरा और आपका सम्मान हुआ करती थीं । आप जो आजकल शाम को शराबनोशी के वक़्त जब नमकीनों और आपकी मँहगी टेबुलों के मध्य नुमायाँ करते हो ना तो मुझे बहुत घिनोना सा लगता है अपना वजूद । आप सामने वाले से बात करते हुऐ जब मेरे ही सामने मेरे वजूद के दम पर जो अट्टाहास करते हो ना यह बहुत नाजायज बात है । जिसे आप शायद अब कभी नही समझना चाहते हो । में अच्छी तरह जानता हूँ की आप इस इस दावानल में अकेले ही जिस्मफ़रोशी का क़ारोबार नही कर रहे हो । अपितु आपके जैसे कई नाजायज कारोबारी मेरी परछाइयों का बेजा इस्तेमाल करने में व्यस्त हैं । आप अभी बहके हुऐ हो । इस शराबनोशी और जिस्मफ़रोशी के मध्य दहकता और सुलगता हुआ मेरा जिस्म आज नहीं तो कल इसका पर्चाबयान खुद बा खुद देगा । आज बेशक़ इस भीड़ में उतनी समझ नहीं है जो तुम्हारी और मेरी हक़ीक़त को समझ सकें । किन्तु तुम्हारी इस बेहयाई से में बहुत परेशान हूँ । क्या क्या लिखा जा रहा है मेरे सीने पर प्रायोजित बयानों के रूप में जिसे में कभी बर्दाश्त नही कर सकता । लेकिन चूँकि कल आप ही ने रात को एक क़ारोबार में शराबनोशी के वक़्त माँस खाकर अपने हाथों को मेरे वजूद से नहीं बल्कि खुद मुझसे बहुत बेरहमी से माँस की गंदगी साफ़ करते हुऐ मुझे एक कोने में फ़ेंकते हुऐ । अपने मित्र से मुझे फिर होने वाले कल के लिये बेच देने का वायदा किया है । दूसरी तरफ बहुत सारे लोग जिन्हेँ ना आपके बिकाऊ होने का अंदेशा है । ना ही जिन्हें आपकी शिद्दत पर कोई शक वो बडे चाव से एक उजली सी भोर में मेरी लाश को जिंदगी का बयान समझेंगे । में मेरी हजारों परछाइयों के साथ एक रंगी पुती लाश की मानिंद धकेल दिया जाऊँगा उन मासूम ज़हनों में जिन्हें इस बात की ज़रा भी इत्तिला नही है कि उनके जहन में मेरे सीने पर गन्दे खून से लिखा गया तुम्हारा किसी के हित का स्वार्थी बयान उनके लिये किसी नजीर की तरह होगा । तुम बहुत बदल गये हो एक अंजान के तरह हो गये हो मुझसे । जिसका सिर्फ और सिर्फ व्यापारिक रिश्ता या मज़बूरी जैसा कुछ रह गया है मेरे और तुम्हारे दरमियाँ । आजकल बहुत उदास सा लगता है ये सब मुझे रोज़ विश्वासों की अग्निसेज़ पर बिछा दिया जाता है किसी नगरवधू की की तरह । ये छल है जिसे कर कोई और रहा है और माध्यम में हूँ । अपने कुनबे के रक्षक तो तुम ही थे और तुम ही उन रंगीन गलियों में रंगरेज बने क्या काला सफ़ेद ख़ोज रहे हो यह मेरी समझ से बिलकुल परे है । तुम इस दलदल में धँसे हुऐ वो क़िरदार हो जिसे न्याय के मंदिर जब भी इन्साफ हुआ कभी बख्शा नही जाएगा । आज की ये रंगीन रातें ये जाम ये मदहोशी तुम्हें धिक्कारेगी तुम्हारे को मेरा पहरेदार होने पर । तुम बेशक़ मुझे बिछा दो उनके जिस्म तले जहाँ कोई नया गोरखधंधा तुम्हारी शह पर पनप रहा है । ये मेरी गुहार है जो रात तुम्हारी सेज़ पर कभी कभी अंतर्मन की गंध सी महकेगी अगर तुम समझ पाओ तो । तुम्हारे सच के इन्तजार में तुम्हारा अख़बार ©Chandrashekhar Trishul "
प्रिय संपादक जी , में बहुत अर्से से देख रहा हूँ की हालात बहुत चिंताजनक होते जा रहे हैं । में कभी ख़बरिया मशहूरियत का आइना हुआ करता था । उस समय आपका रौब रुबाब देखते ही बनता था । वो महफ़िलें चाहे राजनीती की हो,समाज की हों,किसी जागरूकता के लिये हों या फिर कहीं भी कोई भी किसी वजह से जब बुलाये तो सब आपकी आमदरफ्त और आपकी नजरें इनायत के लिये तरसा करते थे । आप मुझे बहुत एहतियातन अपने वजूद से ज़्यादा समझा करते थे । ख़ैर अब तो ऐसा लगता है कि आपके और मेरे मध्य एक खाई सी ख़ुद गयी है । अब में बहुत बार देखता हूँ कि आप मेरे सीने पर मेरे भीतर मेरे वेश में ना जाने क्या क्या छुपाकर बेच देते हैं । उन मासूम पाठकों को जिसमें उससे प्रभावित होने वाली युवा पीढ़ी,बुजुर्ग,महिलाएँ,बच्चे और तमाम लोग जो आपके लिखे हुऐ शब्दों पर ईश्वर जैसा भरोसा करते हैं । आप अपनी मिजाजपुर्सी और बेईमानी के लिये मुझे एक ज़रिया बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं । आप अब वो नही रहे जो कभी अपने उसूलों में मुझे सामाजिक बदलाव का हस्ताक्षर माना करते थे । आप बहुत बदल गये हैं संपादक जी सच कहूं तो अब मुझ पर छिड़की गयी स्याही मुझे वो गन्दा खून लगती है जिसे क्षुद्र और छदम रास्तों से लाकर महज़ इस माहौल को किसी खासोआम की तरफ मोड़ने के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है । आप बेहद बदल गये हैं उन कसमों से जो कभी मेरा और आपका सम्मान हुआ करती थीं । आप जो आजकल शाम को शराबनोशी के वक़्त जब नमकीनों और आपकी मँहगी टेबुलों के मध्य नुमायाँ करते हो ना तो मुझे बहुत घिनोना सा लगता है अपना वजूद । आप सामने वाले से बात करते हुऐ जब मेरे ही सामने मेरे वजूद के दम पर जो अट्टाहास करते हो ना यह बहुत नाजायज बात है । जिसे आप शायद अब कभी नही समझना चाहते हो । में अच्छी तरह जानता हूँ की आप इस इस दावानल में अकेले ही जिस्मफ़रोशी का क़ारोबार नही कर रहे हो । अपितु आपके जैसे कई नाजायज कारोबारी मेरी परछाइयों का बेजा इस्तेमाल करने में व्यस्त हैं । आप अभी बहके हुऐ हो । इस शराबनोशी और जिस्मफ़रोशी के मध्य दहकता और सुलगता हुआ मेरा जिस्म आज नहीं तो कल इसका पर्चाबयान खुद बा खुद देगा । आज बेशक़ इस भीड़ में उतनी समझ नहीं है जो तुम्हारी और मेरी हक़ीक़त को समझ सकें । किन्तु तुम्हारी इस बेहयाई से में बहुत परेशान हूँ । क्या क्या लिखा जा रहा है मेरे सीने पर प्रायोजित बयानों के रूप में जिसे में कभी बर्दाश्त नही कर सकता । लेकिन चूँकि कल आप ही ने रात को एक क़ारोबार में शराबनोशी के वक़्त माँस खाकर अपने हाथों को मेरे वजूद से नहीं बल्कि खुद मुझसे बहुत बेरहमी से माँस की गंदगी साफ़ करते हुऐ मुझे एक कोने में फ़ेंकते हुऐ । अपने मित्र से मुझे फिर होने वाले कल के लिये बेच देने का वायदा किया है । दूसरी तरफ बहुत सारे लोग जिन्हेँ ना आपके बिकाऊ होने का अंदेशा है । ना ही जिन्हें आपकी शिद्दत पर कोई शक वो बडे चाव से एक उजली सी भोर में मेरी लाश को जिंदगी का बयान समझेंगे । में मेरी हजारों परछाइयों के साथ एक रंगी पुती लाश की मानिंद धकेल दिया जाऊँगा उन मासूम ज़हनों में जिन्हें इस बात की ज़रा भी इत्तिला नही है कि उनके जहन में मेरे सीने पर गन्दे खून से लिखा गया तुम्हारा किसी के हित का स्वार्थी बयान उनके लिये किसी नजीर की तरह होगा । तुम बहुत बदल गये हो एक अंजान के तरह हो गये हो मुझसे । जिसका सिर्फ और सिर्फ व्यापारिक रिश्ता या मज़बूरी जैसा कुछ रह गया है मेरे और तुम्हारे दरमियाँ । आजकल बहुत उदास सा लगता है ये सब मुझे रोज़ विश्वासों की अग्निसेज़ पर बिछा दिया जाता है किसी नगरवधू की की तरह । ये छल है जिसे कर कोई और रहा है और माध्यम में हूँ । अपने कुनबे के रक्षक तो तुम ही थे और तुम ही उन रंगीन गलियों में रंगरेज बने क्या काला सफ़ेद ख़ोज रहे हो यह मेरी समझ से बिलकुल परे है । तुम इस दलदल में धँसे हुऐ वो क़िरदार हो जिसे न्याय के मंदिर जब भी इन्साफ हुआ कभी बख्शा नही जाएगा । आज की ये रंगीन रातें ये जाम ये मदहोशी तुम्हें धिक्कारेगी तुम्हारे को मेरा पहरेदार होने पर । तुम बेशक़ मुझे बिछा दो उनके जिस्म तले जहाँ कोई नया गोरखधंधा तुम्हारी शह पर पनप रहा है । ये मेरी गुहार है जो रात तुम्हारी सेज़ पर कभी कभी अंतर्मन की गंध सी महकेगी अगर तुम समझ पाओ तो । तुम्हारे सच के इन्तजार में तुम्हारा अख़बार ©Chandrashekhar Trishul
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