हम भी गांव के उस नुक्कड़ पर शाम को बैठा करते थे।
हम भी सुबह की किरणों की शाम तक दीदार किया करते थे।
हम भी चिड़ियों की आवाज की नकल किया करते थे।
हम भी कोयल की कू-कू पर उसे चिढ़ाया करते थे ।
हम भी हर शाम मुंडेर पर बैठे मोर से गुफ्तगू किया करते थे ।
हम भी उस प्यारी गिलहरी की आंखों को पढ़कर उसकी भूख का अंदाजा लगाया करते थे ।
हम भी हर बेजुबान की जुबान सुन और आंखों को पढ़ लिया करते थे ।
साहब... हम भी कभी बेफिक्र इंसान हुआ करते थे ।
सपनों ने सपना बना दिया ये सब, वरना हम भी कभी खुद से खुद का हुआ करते थे ।
हालात ने बाहर भेजा है, वरना उस हवा में जिंदगी जी भर जिया करते थे ।
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