"मुसलसल मेरे ज़ख़्मों पर यूंही नमक मलने की
गंदी सी लत पड़ चुकी है साहिब-ए-मसनद को
पर वो आज-कल करने लगे है बातें मरहम की
और घबराने लगे है देख ज़ख़्मों के हर कद को
संगीन जुर्म है यह जले घरों पर हाथ सेंकने की
जैसी करनी वैसी भरनी पता है हर सरहद को
हम अवाम-ए-हिंद है हमें आदत नही सहने की
ना आंको साहिब-ए-मसनद आवाम की हद को
©अदनासा-
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