White ज़िंदगी यूँ ही आजकल गुज़ारी जा रही है
जैसे कोई जंग फिर से हारी जा रही है
जिस जगह पहले के ज़ख़्मों के निशान थे
फिर उसी जगह फिर चोट मारी जा रही है
वक्त के साथ सब कुछ बदलता क्यूँ नहीं है
जिस्म से सिसक कर जान हमारी जा रही है
बोल कर तारीफ़ में कुछ शब्द ही उनसे आखिर
शख़्सियत अपनी जुबान की निखारी जा रही है
धूप के दस्ताने जैसे अपने हाथों में पहन कर
बर्फ़ की चादर मुखौटे से फिर उतारी जा रही है
ज़िंदगी यूँ ही आजकल गुज़ारी जा रही है
जैसे कोई जंग फिर से हारी जा रही है
©कुमार दीपेन्द्र
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