मामला बड़ा संगीन है, सुलझाना इसे गंभीर है,,,,,,,,,

"मामला बड़ा संगीन है, सुलझाना इसे गंभीर है,,,,,,,,, मन की कड़वी भ्रांति ने कंगाल तुझको कर दिया है। शास्त्रों के अंजाम को क्यों संकीर्ण इतना कर दिया है। दूसरों की भूल को इल्जाम इतना दे रहा है। क्यों खुद के अपने बदन को बदनाम इतना कर रहा है । ये मुख की तेरी वाणी अब बेस्वाद हो गई है । स्वर, वाचाल ,वेदना सब नीरस हो गई है।। है जटिल अब कुछ भी नहीं, बस मन की तेरी खलल है। बस सभ्यता और सत्कार को तू कर्म में ढाला नहीं है ।। क्या इस तरह ही मिल सका है न्याय सबको,,,, यदि पनाह पाना चाहता है फिर आक्षेप को तू भूल जा।। तेरी यही व्यग्रता मुझको पीड़ा दे रही है । क्यों आचरण को तू अपने बंजर बना रहा,,, संताप क्यूँ इतना तू दुनिया को दे रहा ,, मामला अब बेहद अगूढ हो गया है,,,, तेरी हालत अब बेहद अबूझ हो गई है,,,,, मामला बडा संगीन है, सुलझाना इसे गम्भीर है,,,, , जय हिंद ( इजि. विद्या चरण शुक्ला)"

 मामला बड़ा संगीन है, सुलझाना इसे गंभीर है,,,,,,,,,
 मन की कड़वी भ्रांति ने कंगाल तुझको कर दिया है। 
शास्त्रों  के अंजाम को क्यों संकीर्ण इतना कर दिया है। 
दूसरों की भूल को इल्जाम इतना दे रहा है। क्यों खुद के अपने बदन को बदनाम इतना कर रहा है ।
ये मुख की तेरी वाणी अब बेस्वाद हो गई  है ।
स्वर, वाचाल  ,वेदना सब  नीरस हो गई है।। 
है  जटिल अब कुछ भी नहीं, बस मन की तेरी खलल है।
 बस  सभ्यता और सत्कार को 
तू कर्म  में ढाला  नहीं है ।।
क्या इस तरह ही मिल सका है न्याय सबको,,,,
यदि पनाह पाना चाहता है फिर 
 आक्षेप को तू भूल जा।।
तेरी  यही व्यग्रता मुझको पीड़ा दे रही है ।
क्यों आचरण को तू अपने बंजर बना रहा,,,
संताप क्यूँ इतना तू दुनिया को दे रहा ,,

मामला अब बेहद अगूढ हो गया है,,,,
तेरी हालत अब बेहद अबूझ हो गई है,,,,,

मामला बडा संगीन है, सुलझाना इसे गम्भीर है,,,,    ,
जय हिंद
 (  इजि. विद्या चरण शुक्ला)

मामला बड़ा संगीन है, सुलझाना इसे गंभीर है,,,,,,,,, मन की कड़वी भ्रांति ने कंगाल तुझको कर दिया है। शास्त्रों के अंजाम को क्यों संकीर्ण इतना कर दिया है। दूसरों की भूल को इल्जाम इतना दे रहा है। क्यों खुद के अपने बदन को बदनाम इतना कर रहा है । ये मुख की तेरी वाणी अब बेस्वाद हो गई है । स्वर, वाचाल ,वेदना सब नीरस हो गई है।। है जटिल अब कुछ भी नहीं, बस मन की तेरी खलल है। बस सभ्यता और सत्कार को तू कर्म में ढाला नहीं है ।। क्या इस तरह ही मिल सका है न्याय सबको,,,, यदि पनाह पाना चाहता है फिर आक्षेप को तू भूल जा।। तेरी यही व्यग्रता मुझको पीड़ा दे रही है । क्यों आचरण को तू अपने बंजर बना रहा,,, संताप क्यूँ इतना तू दुनिया को दे रहा ,, मामला अब बेहद अगूढ हो गया है,,,, तेरी हालत अब बेहद अबूझ हो गई है,,,,, मामला बडा संगीन है, सुलझाना इसे गम्भीर है,,,, , जय हिंद ( इजि. विद्या चरण शुक्ला)

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