यूं ही नहीं कोई झोंकता,
इस जिस्म को आग में।
किसी बात की तो कोई,
‘हद’होती होगी।।
यूं ही नहीं खेलता,
कोई जिस्म आग की लपटों से ।
अरमानों की सेज,
जरूर कहीं चीखती होगी।।
क्यूं माथे की बिंदिया,
चमक भूल जाती है।
क्यूं कोई औरत,
खुद से रूठ जाती है।।
यूं ही नहीं झूल जाता,
कोई गला फांसी पर।
सावन की डोर जरूर,
कहीं टूटती होगी ।।
©नेहा तोमर