ज़िन्दगी तू इतनी क्यों उलझी हुई है!
रात दिन के जंग में तू कट रही है!!
चंद सफ़हो का ही था किस्सा अगर मैं,
ये किताबे ज़िन्दगी फिर क्यों बड़ी है!!
मौत ने इक दिन ये पूछा ज़िन्दगी से,
बेवफा तू किस क़दर ज़िद पर अड़ी है!!
मान भी जा ज़िद का शीशा तोड़ भी दे!
सांस ले पर ज़िंदा रहना छोड़ भी दे!!
ज़िन्दगी ये सुन के बिल्कुल डर गई !
मौत से पहले ही थोड़ी मर गयी!!
फिर जुटाके उसने अपने हौसले,
ज़ख्म उसने दिल के सब करके हरे,
टूटती साँसों से फिर लड़ने लगी,
ज़िन्दगी कुछ ज़िद पे फिर अड़ने लगी,
मुस्कुराकर मौत से कहने लगी,
मेरी ज़िद अब और भी बढ़ने लगी!!😊
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