ख़ामोश अंधेरों में हक़ीक़त से थोड़ा तआरुफ़ हुआ है,
मुग़ालतों के सिवा महफ़िलों की रोशनी ने दिया क्या है?
असबाब बटोरते लोगों को ख़ाली हाथ लौटते देखता हूँ,
ग़लत फ़ैसलों पे पशेमाँ होने के सिवा ये जीना क्या है?
मज़हब कहते हैं बदकिस्मती नतीजा-ए-गुनाह हैं और कुछ नहीं,
कभी किसी यतीम से पूछूंगा कि उसने ऐसा बुरा किया क्या है?
तमाम उम्र की कमाई से बनी मज़बूत दीवारों से टिके सोचता हूँ,
एक लंबी सड़क और एक सराय के इलावा दुनिया क्या है?
जाने किस बात का एहसान शाम-ओ-सहर जताता है ज़माना,
चंद बेतरतीब यादों के सिवा ज़ालिम से हमने लिया क्या है?
©Shubhro K
@Pushpvritiya Manali Rohan @feeling @Monika @Darshan Raj