(भयानक सवेरा) दूर बैर के पेड़ के नीचे से कांटों भ

"(भयानक सवेरा) दूर बैर के पेड़ के नीचे से कांटों भरी सेज पर बैठे ये भयानक मंज़र मेरी आंखों के सामने चलते मैं देख रहा हूं। हवा की रफ्तार से आकर एक गाड़ी रूकी है। जिसमें से एक और योद्धा को उतारा जा रहा है, जो कि जीते-जी तो शेर था ही साथ ही मरते दम तक इस महामारी से लड़ा। सामने से धीमी सी बुझती हुई सूरज की रोशनी ऐसी प्रतीत हो रही है मानो, सूरज भी बाहर आने से कांप रहा हो और पहाड़ियों की आड़ से सब देख रहा हो।पास से गुजर रही नहर मानो धीरे से आवाज़ दबाती चुपके से शांत होकर निकल जाना चाहती हो।आस पास के खेत खलिहानों से केवल सन्नाटे गुज़र रहे हैं और कानों को चीरती बस परिजनों की चीख-पुकार ही पड़ रही है। श्मशान से उठता धुआं धीरे से भोर के कुहासे में विलीन हो रहा है। चारों ओर बस हवाओं से बहस करती चीखें सुनाई दे रही है जो कब खत्म होगी किसी को नहीं पता।..... ©gaurav dangi"

 (भयानक सवेरा)

दूर बैर के पेड़ के नीचे से कांटों भरी सेज पर बैठे ये भयानक मंज़र मेरी आंखों के सामने चलते मैं देख रहा हूं। हवा की रफ्तार से आकर एक गाड़ी रूकी है। जिसमें से एक और योद्धा को उतारा जा रहा है, जो कि जीते-जी तो शेर था ही साथ ही मरते दम तक इस महामारी से लड़ा। सामने से धीमी सी बुझती हुई सूरज की रोशनी ऐसी प्रतीत हो रही है मानो, सूरज भी बाहर आने से कांप रहा हो और पहाड़ियों की आड़ से सब देख रहा हो।पास से गुजर रही नहर मानो धीरे से आवाज़ दबाती चुपके से शांत होकर निकल जाना चाहती हो।आस पास के खेत खलिहानों से केवल सन्नाटे गुज़र रहे हैं और कानों को चीरती बस परिजनों की चीख-पुकार ही पड़ रही है। श्मशान से उठता धुआं धीरे से भोर के कुहासे में विलीन हो रहा है। चारों ओर बस हवाओं से बहस करती चीखें सुनाई दे रही है जो कब खत्म होगी किसी को नहीं पता।.....

©gaurav dangi

(भयानक सवेरा) दूर बैर के पेड़ के नीचे से कांटों भरी सेज पर बैठे ये भयानक मंज़र मेरी आंखों के सामने चलते मैं देख रहा हूं। हवा की रफ्तार से आकर एक गाड़ी रूकी है। जिसमें से एक और योद्धा को उतारा जा रहा है, जो कि जीते-जी तो शेर था ही साथ ही मरते दम तक इस महामारी से लड़ा। सामने से धीमी सी बुझती हुई सूरज की रोशनी ऐसी प्रतीत हो रही है मानो, सूरज भी बाहर आने से कांप रहा हो और पहाड़ियों की आड़ से सब देख रहा हो।पास से गुजर रही नहर मानो धीरे से आवाज़ दबाती चुपके से शांत होकर निकल जाना चाहती हो।आस पास के खेत खलिहानों से केवल सन्नाटे गुज़र रहे हैं और कानों को चीरती बस परिजनों की चीख-पुकार ही पड़ रही है। श्मशान से उठता धुआं धीरे से भोर के कुहासे में विलीन हो रहा है। चारों ओर बस हवाओं से बहस करती चीखें सुनाई दे रही है जो कब खत्म होगी किसी को नहीं पता।..... ©gaurav dangi

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