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इस अंजान शहर में ख़ुद को मिटा रहा हूं
बैचेन होकर थका हारा फिर लौट रहा हूं
घर वालों से दूर जी रहा हूं उनको देने जो है वो सुख
बस एक मां ही है समझती है मेरे हर एक दुःख
घरवाले बुला रहे है घर वापस आ जा अब बस हो गया
क्या जा पाऊंगा फिरसे,पहले जैसा क्या ही अब है रह गया?
मुसाफ़िर सा बन गया हूं, कुछ दिनों के लिए घर जाना
अब घरवाले भी सिख गए हैं जाते वक्त आसूं छुपाना
दिन भर के वो सारे काम और वो शाम का दौर
लगता जैसे इक डोर है जो खींच रही हो घर की ओर
©Vaishnavi Pathak
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#evening #alone