कहीं सहमी पड़ी सभ्यता
कहीं संस्कृति है रो रही
कहीं आस लगाए मानवता मानव को है खोज रही
कहीं हिमालय सोच रहा
हाय मेरी विशालता कहां गई एक ओर जालंधर सोच रहा हाय मेरी गंभीरता कहां गई सब के सब हैं दुखी यहां पर सब को कमी है खल रही
ये मानव क्यों ना सोच रहा जबकि इसमें कुछ भी शेष नहीं दया नहीं
धर्म नहीं
ईमान नहीं
मूल अंश का नाम नहीं
*कवि*
सुरेश चन्द शिवा
#खोखला#मानव