मंज़िल मिले न मिले चलने को सफ़र रखता है ठोकर खाके | हिंदी शायरी

"मंज़िल मिले न मिले चलने को सफ़र रखता है ठोकर खाके भी वो बढ़ने का ज़िगर रखता है। हम अपनी गलतियों को भला छुपाएं भी कैसे, गुनाह किसी से हो इलज़ाम मिरे सर रखता है। टूट के बिखर ना जाए अंधियो के झोकों से परिंदों की खातिर ही दरख़्त शज़र रखता है। उसके ज़ुल्म की ज़द से कहीं निकल ना जाएं, इसलिए मिरे चाहने वालों की ख़बर रखता है। सुकून से मर भी जाएं ये भी मुनासिब नहीं है, वो तो गीद्धों की तरह लाशों पे नज़र रखता है। ©Sonu Yadav ( यदुवीर )"

 मंज़िल मिले न मिले चलने को सफ़र रखता है
ठोकर खाके भी वो बढ़ने का ज़िगर रखता है। 

हम अपनी गलतियों को भला छुपाएं भी कैसे, 
गुनाह किसी से हो इलज़ाम मिरे सर रखता है।

टूट के बिखर ना जाए अंधियो के झोकों से
 परिंदों की खातिर ही दरख़्त शज़र रखता है।
   
उसके ज़ुल्म की ज़द से कहीं निकल ना जाएं, 
इसलिए मिरे चाहने वालों की ख़बर रखता है।
 
सुकून से मर भी जाएं ये भी मुनासिब नहीं है, 
वो तो गीद्धों की तरह लाशों पे नज़र रखता है।

©Sonu Yadav ( यदुवीर )

मंज़िल मिले न मिले चलने को सफ़र रखता है ठोकर खाके भी वो बढ़ने का ज़िगर रखता है। हम अपनी गलतियों को भला छुपाएं भी कैसे, गुनाह किसी से हो इलज़ाम मिरे सर रखता है। टूट के बिखर ना जाए अंधियो के झोकों से परिंदों की खातिर ही दरख़्त शज़र रखता है। उसके ज़ुल्म की ज़द से कहीं निकल ना जाएं, इसलिए मिरे चाहने वालों की ख़बर रखता है। सुकून से मर भी जाएं ये भी मुनासिब नहीं है, वो तो गीद्धों की तरह लाशों पे नज़र रखता है। ©Sonu Yadav ( यदुवीर )

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