इस तफ्सील से समझ ली हैं इश्क की बारीकियां मैने
की इस कदर उलझे हैं अब कि कुछ सुलझ नहीं पाता
यूं तो इस शहर में ही बनवाया था मैंने मकान अपना
पर जाने क्यों शहर का कोई रास्ता मेरे घर नही जाता
मुझ पर पड़ी हर नज़र के माथे पर शिकन आ गई
इस बेरुखी की पर जाने क्यों कोई वजह नही बताता
यूं ही बचपने में अक्सर हंस देता था मैं जिन्दगी पर
अब सयाना इस कदर हो गया हूं की रोया नहीं जाता
एक तो बारिश की नमी उस पर तेरी यादों की सिसक
जो इस कदर ही जीना है तो फिर मर क्यों नहीं जाता
©Atul singh
#Journey