मेरे ख्वाबों में कोई यूँ सँवरने लगे,
कागज पे भाव खुद ही उतरने लगे।
जानता हूँ नेह से तृप्ति उधर भी नहीं,
इसी प्यास से तो वे और निखरने लगे।
कुछ महक जो चुराया उनमें से जरा,
वो हवाओं में घुल-घुल पसरने लगे।
पात सा झर के गीरें हैं हम एक डाल से,
कहीं समेटे गयें हम कहीं बिखरने लगे।
आँख ही तो है सा'ब इसका क्या कीजिए,
कहीं बसाये गये हम कहीं खटकने लगे।
उनने रूखसत किया यूँ हुआ कुछ सितम,
हम अपने भीतर में खुद ही भटकने लगे।
✍️साकेत ठाकुर
२३-०३-२०१८
मेरे ख्वाबों में कोई यूँ सँवरने लगे,
कागज पे भाव खुद ही उतरने लगे।
जानता हूँ नेह से तृप्ति उधर भी नहीं,
इसी प्यास से तो वे और निखरने लगे।
कुछ महक जो चुराया उनमें से जरा,
वो हवाओं में घुल-घुल पसरने लगे।
पात सा झर के गीरें हैं हम एक डाल से,
कहीं समेटे गयें हम कहीं बिखरने लगे।