वक्त की फिसलती रेत पर,साल-दर-साल गुजरेंगे
तूने हर बार हैं ख़्वाब बुने,इस बार भी अरमान मचलेंगे
यथार्थ की कसौटी पर,इस बार भी दुनिया तुझको परखेगी
माना तू नाज़ुक- कोमल है फिर भी शूल तो राहों में बिखरेंगे
ये मानव मन की आशा है,जो लेकर तुझे अंधेरों के उस-पार चली
ये जीवन का है रंगमंच सखा,इस बार भी किरदार मिलेंगे और बिछड़ेंगे
माना जीवन के संघर्षों में,तुझे जीत कम, ज़्यादा मात मिली
फिर भी इस बार तू अपना ज़ोर लगा,कभी तो दिन तेरे भी बदलेंगे
उजास में हंसते चेहरों में भी विषाद की हल्की छाया है
तुम कर्तव्य-पथ पर डटे रहो,पत्थर के सनम भी पिघलेंगे
अच्छा अब एक बात बताओ तुम,क्या इस बार भी न कुछ नया हुआ
चलते रहना ही नियति है,इस वर्ष भी हम गिरेंगे और संभलेंगे...
©Abhishek Trehan
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