जब माँ घर नहीं थी...
आज फिर सवेरा हुआ पर आज वो बात नहीं सवेरे में जो रोज होती है, होती भी कैसे आज माँ की मधुर आवाज़ ने जो नहीं जगाया था
क्यूंकि जब माँ घर नहीं थी,
सोचा छत पर जाती हूँ थोड़ा टहलने, जब गयी तो आज हवाओ का अंदाज ही अलग सा था, नहीं थी वो बात आज हवाओ में भी
क्यूंकि जब माँ घर नहीं थी ,
बात करूं अगर घर की बगिया की जो रोज खूबसूरत फ़ूलों से महकती है, वो भी आज थी बिल्कुल सूनी
क्यूंकि जब माँ घर नहीं थी ,
अब में वापस नीचे जा रहीं थीं, पापा के लिए टिफिन जो बनाना था फिर मै गयी किचन में पर किचन में भी आज वो गरमाहट नहीं थी
क्यूंकि आज माँ घर नहीं थी ,
फिर दिन गहराने लगा था तो सोचा अब में भी खाना खा लेती हूँ, जब लगी में खाना खाने तो आज खाने में भी वो स्वाद कहा ना वो सुकून
क्यूंकि जब माँ घर नहीं थी ,
फिर और थोड़ा बचा हुआ काम करके में फ्री हुई तो सोचा अब मैं सो लेती हूँ थोड़ा आराम कर लेती हूँ, पर जब सोई तो सुकून की वो नींद ही नहीं
क्यूंकि जब माँ घर नहीं थी ,
क्यूंकि जब माँ घर नहीं थी...✍🏻
©Harshita
#Parchhai My lines...✍️🏻
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