यूँ फिर एक दिन ढलता है रफ्ता रफ्ता,
रफ्ता रफ्ता शाम आती है, महफ़िल सजती है,
मुमकिन नहीं जिन ख्वाबों का हक़ीक़त होना,
उन हर ख्वाबों को हम ख्यालात से मिटाते है,
सो रफ्ता रफ्ता हर शाम जेहन से तेरी सिलवटें हटाते है,
पर आफ़रीन तू इतनी की हर सुबह तुझे देखते ही जर्रे जर्रे में फिर से इश्क़ छा जाता है,
ख्वाबों की फेहरिश्त में वही ख्वाब फिर से जुड़ जाता है...
©divyanshu_writes
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