"पहले से क्या लिखा था
इस वीरान जज़ीरे पर
चट्टानों से उतर के जब सूरज गुरुब हो
सुर्ख सुनहरी साहिलों पे तुम मिलो मुझे
और इस तरह फिसल के गिरो तुम मेरे करीब
जैसे समंदरों ने अभी ला के फेंका हो
यह पहले से नविश्ता था या इत्तेफ़ाक़ था
सूरज के बाद चाँद निकलने के वक्फे में
तारीखी जब के मौत सूंघती है हर तरफ
शायद किसी के दर्द विसर्जन को आयी थी
उस रात चाँद भी तो बहुत देर से उठा
और तुम किताबें दर्द के जख्मों को खोल कर
मुझको सुनाते भी रहे और फाड़ते भी रहे
पानी पे दूर दूर तक पुर्जे से बिछ गए
रुखसत के वक़्त हाथ मिलाते हुए मगर
करवट बदल रहा था कोई दर्द सीने में
आसूं तुम्हारी आँखों में फिर से नविश्ता थे
और इत्तेफ़ाक मेरी भी आँखें छलक गयी
पहले से क्या नविश्ता है क्या इत्तेफ़ाक़ है"
©Kalpana yadav
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