सुनो, छोड़ देते हैं ना ये जात बिरादरी का खेल
कोशिश करते हैं शायद एसे हो जाए हम इंसानों का मेल।
ये गोत्र, जाति, धर्म उपर वाले ने कहां बनाए थे?
हम ही तो थे जिन्होंने हर धर्म के अलग भगवान बसाए थे।
धर्म कर्म की बाते अब एक मजाक सा लगता है
इंसान तो हैं, पर इंसानियत महज एक अल्फाज़ सा लगता है।
कब बांट लिया सबकुछ हम तो एक आकाश के नीचे रहते थे।
कब बिछड़ गए दो दोस्त धर्म के नाम पर जो बचपन में हमेशा साथ रहते थे।
कब तक चलेगा धर्म जात का ये खेल अब इससे रोकने का तरीका जान लेते हैं
भूल जाते है हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई जैसे शब्द और इंसानियत को ही एकमात्र धर्म मान लेते हैं।
©Ms. Nimbriya
सुनो!!!
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