कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ , कि खुदखुशी कर लूँ । और | हिंदी कविता

"कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ , कि खुदखुशी कर लूँ । और बाँट दूँ सारी तकलीफ़ें , उलझने इस जहाँ को । लेकिन कैसे ये सवाल रोज़ सताता है ? फंदे के साथ एक मसला है अपना, कद जो छोटा है । चाकू या छुरिया अपने किसी काम की नही क्योंकि , पहले भी ये कुछ बिगाड़ नही पायीं है मेरा । डूबना एक अच्छा उपाय था लेक़िन , कमबख्त हमने बचपन मे तैरना सिख लिया । ऐसे न जाने कितने तरीक़े रोज़ आकर चले जाते है ख़यालो से । लेकिन इस मर्ज़ की कोई गुंजाइश नही दिखती । कभी कभी मैं सोचता हूँ आसमान के तख्ती पर लिख दूँ, अपने मौत का फरमान, लेकिन बादल उसे मिटा देता है । कभी मैं सोचता हूँ पहाड़ के ऊंचे टीले से छलांग लगा दूँ , लेकिन वो भी मेरे करीब नही । हाँ , अब मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा मरता हूँ अपने ज़हन में , और हर रोज़ खुद के लाश को इक्कठा करके , एक ऊँचा टीला बना रहा हूँ । किसी दिन खुद के लाशों से बने टीले से कूद के देखूँगा , जान जाती है या नही । ©Aanand"

 कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ ,
कि खुदखुशी कर लूँ ।
और बाँट दूँ सारी तकलीफ़ें , उलझने इस जहाँ को ।
लेकिन कैसे ये सवाल रोज़ सताता है ?
फंदे के साथ एक मसला है अपना,
कद जो छोटा है ।
चाकू या छुरिया अपने किसी काम की नही क्योंकि ,
पहले भी ये कुछ बिगाड़ नही पायीं है मेरा ।
डूबना एक अच्छा उपाय था लेक़िन ,
कमबख्त हमने बचपन मे तैरना सिख लिया ।
ऐसे न जाने कितने तरीक़े रोज़ आकर चले जाते है ख़यालो से ।
लेकिन इस मर्ज़ की कोई गुंजाइश नही दिखती ।
कभी कभी मैं सोचता हूँ आसमान के तख्ती पर लिख दूँ,
अपने मौत का फरमान, 
लेकिन बादल उसे मिटा देता है ।
कभी मैं सोचता हूँ पहाड़ के ऊंचे टीले से छलांग लगा दूँ ,
लेकिन वो भी मेरे करीब नही ।
हाँ , अब मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा मरता हूँ अपने ज़हन में ,
और हर रोज़ खुद के लाश को इक्कठा करके ,
एक ऊँचा टीला बना रहा हूँ ।
किसी दिन खुद के लाशों से बने टीले से कूद के देखूँगा ,
जान जाती है या नही ।

©Aanand

कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ , कि खुदखुशी कर लूँ । और बाँट दूँ सारी तकलीफ़ें , उलझने इस जहाँ को । लेकिन कैसे ये सवाल रोज़ सताता है ? फंदे के साथ एक मसला है अपना, कद जो छोटा है । चाकू या छुरिया अपने किसी काम की नही क्योंकि , पहले भी ये कुछ बिगाड़ नही पायीं है मेरा । डूबना एक अच्छा उपाय था लेक़िन , कमबख्त हमने बचपन मे तैरना सिख लिया । ऐसे न जाने कितने तरीक़े रोज़ आकर चले जाते है ख़यालो से । लेकिन इस मर्ज़ की कोई गुंजाइश नही दिखती । कभी कभी मैं सोचता हूँ आसमान के तख्ती पर लिख दूँ, अपने मौत का फरमान, लेकिन बादल उसे मिटा देता है । कभी मैं सोचता हूँ पहाड़ के ऊंचे टीले से छलांग लगा दूँ , लेकिन वो भी मेरे करीब नही । हाँ , अब मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा मरता हूँ अपने ज़हन में , और हर रोज़ खुद के लाश को इक्कठा करके , एक ऊँचा टीला बना रहा हूँ । किसी दिन खुद के लाशों से बने टीले से कूद के देखूँगा , जान जाती है या नही । ©Aanand

कभी कभी यूँ ही ।

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